: अनोखी शहादत
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मैं आज के दिन हुई गांधी की हत्या को उनकी शहादत के तौर पर देखता हूं। वे आजादी और बंटवारे के बाद पूरे देश में फैले सांप्रदायिक उन्माद को खत्म करने के लिए शहीद हुए थे। कई इतिहासकारों ने लिखा है कि गांधी की हत्या का समाचार जब पूरे देश में फैलने लगा तो दंगे अपने-आप बंद होने लग गये। उस शहादत ने भले ही वक्ती तौर पर मगर भारत के लोगों के मन में भरे सांप्रदायिक उन्माद को तो खत्म कर ही दिया। उसके बाद लंबे समय तक शांति छायी रही।
दिलचस्प है कि गांधी यह सब जानते थे। उन्हें भरोसा था कि अगर मेरी शहादत इस काम में हो गयी तो शायद लोगों के मन में जड़ जमा चुके नफरत को खत्म किया जा सकता है। 1946 के आखिर में जब वे नोआखली गये तभी से उन्होंने इस बात को कहना शुरू कर दिया था। वे कहते थे कि अगर मुझे मार देने से आपके मन का नफरत खत्म हो सकता है तो मुझे मार दीजिये। फिर आने वाले दिनों में उन्होंने खुद भी इस बात को कई दफा दुहराया। बिहार में भी जहां नोआखली का बदला लेने के लिए भीषण दंगे हुए थे और आखिरी दिनों में दिल्ली प्रवास के दौरान भी, वे बार-बार इस बात को दुहराते रहे।
वे सिर्फ अपने लिए यह बात नहीं कहते थे, बल्कि उनके साथ जो भी लोग थे। सभी से यही कहते। मेरे साथ हो तो तुम्हें बलिदान देने के लिए तैयार रहना पड़ेगा। जब मनुबेन नोआखली आयी तो उनसे भी यही कहा। यह मैं उनके आखिरी संघर्ष के बारे में कह रहा हूं। जो उन्होंने नोआखली से शुरू किया था, फिर बिहार गये, फिर कोलकाता गये और दिल्ली के बिरला हाउस में खत्म किया। उन्होंने शहादत दी और इस जंग को जीत लिया।
यह उस जंग की कहानी है, जो उन्होंने अपने ही देश के लोगों के खिलाफ लड़ी। अगर गांधी के शब्दों में कहें तो उस बुराई के खिलाफ लड़ी जो उनके अपने देश के लोगों को शैतान बना रही थी। वे लोगों के खिलाफ तो लड़ते नहीं थे, वे तो हमेशा बुराईयों के खिलाफ लड़ते थे। पापी से नहीं, पाप से नफरत करो। वे हमेशा कहते थे। इसलिए जहां उन्होंने चंपारण सत्याग्रह से लेकर भारत छोड़ो आंदोलन तक अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ चार-पांच बड़े आंदोलन किये, वहीं उन्होंने अपने देश के लोगों की बुराईयों के खिलाफ भी दो बड़े आंदोलन किये। पहला अस्पृश्यता निवारण अभियान और दूसरा सांप्रदायिकता के खिलाफ नोआखली से दिल्ली तक चला अभियान।
दोनों अभियानों में उनके देश के लोग ही उनके खिलाफ खड़े थे। उनका बार-बार अपमान करते, हमले करते और अंत में हत्या भी कर दी। मगर उन्होंने दोनों आंदोलनों को पूरी इमानदारी से निभाया। अपमान सहते, मार खाते हुए लोगों का हृदय परिवर्तन करने की कोशिश करते रहे।
ये दोनों आंदोलन खास तौर पर हम सब को इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि दुश्मन हमेशा बाहरी नहीं होता, दुश्मन हमारे अंदर भी बैठा होता है, उसके खिलाफ भी लड़ना पड़ता है। और बहुमत हमेशा सही नहीं होता, कई दफा बहुमत भी अराजक, हिंसक और पर-पीड़क होता है। ऐसे में बहुमत के खिलाफ अकेले भी खड़ा होना पड़ता है। कई दफा गांधी रवींद्रनाथ टैगोर की उन पंक्तियों को गाते ‘एकला चलो रे’ खास तौर पर सांप्रदायिकता के खिलाफ अभियान में जब वे जुटे थे। कट्टर हिंदू भी उनके खिलाफ थे और कट्टर मुसलमान भी। देश सांप्रदायिकता की भीषण आग में जल रहा था, राजनेता आने वाली सत्ता के लिए राजनीति करने में व्यस्त थे और वह बूढ़ा व्यक्ति अकेले इस आग को बुझाने की कोशिश कर रहा था।
उसके इस अभियान का असर पड़ा। नोआखली में बलवा थमा। बिहार के इलाकों में लोगों ने वादा किया कि अब वे ऐसा नहीं करेंगे। और फिर जब आजादी के दिन वे कोलकाता गये तो वहां चमत्कार हुआ। उसे सभी लोग कलकत्ते का चमत्कार ही कहते हैं। गांधी ने मुस्लिम लीग के बड़े नेता सुहारावर्दी को साथ लिया और एक ही घर में रहने लगे। फिर वे लोगों को समझाते, उनसे बातें करते। अचानक दंगे बंद हो गये।
उस वक्त के वायसराय माउंटबेटेन ने लिखा है, बंटवारे की आग में भारत की दोनों सीमाएं जल रही थीं। पंजाब और बंगाल दोनों तरफ से हिंसक खबरें आ रही थीं। जहां पंजाब की तरफ हमने फौजें लगा दी थीं, वहीं बंगाल की तरफ अकेले गांधी थे। पंजाब के इलाके में फैले रक्तपात और हिंसा को हम रोक नहीं पाये। मगर जो काम लाखों लोगों की फौज नहीं कर पायी, उसे एक अकेले गांधी ने कर दिया। बंगाल में नफरत की आंधी थम गयी थी।
फिर गांधी को दिल्ली आना पड़ा। दिल्ली में उन दिनों जब गांधी आते थे तो दलितों की बस्ती में ठहरते थे। मगर सुरक्षा की वजहों से उन्हें बिरला हाउस में ठहराया गया। वहां भी उनपर हमले होते रहे, लोग बहस करते रहे। मगर गांधी ने शहादत का मन बना लिया था, इसलिए वे सुरक्षा बढ़ाने का विरोध करते थे। फिर गांधी की हत्या हो गयी।
दुखद तो यह है कि गांधी की हत्या न बंगाल के लोगों ने की, न बिहार के लोगों ने, न दिल्ली वालों ने। न पाकिस्तान से आय़े किसी शरणार्थी ने। एक शरणार्थी उस साजिश में शामिल जरूर था, मदन लाल पाहवा। मगर हत्यारा वह नहीं था।
गांधी की हत्या एक मराठी व्यक्ति ने की, जिस महाराष्ट्र में उस वक्त कोई सांप्रदायिक दंगा नहीं हो रहा था। नथुराम गोडसे, जो बापू का हत्यारा था, वह मराठा प्राइड का नुमाइंदा था। वह नफरत की उस स्कूल का छात्र था, जो पुणे में लंबे समय से चल रहा था, जिसके मुखिया सावरकर थे।
नफरत के उस स्कूल ने जरूर सोचा होगा कि वे गांधी को खत्म कर देंगे। मगर गांधी की शहादत के बाद सावरकर की वैचारिक मौत हो गयी। अगले 70 सालों तक उसके अनुयायियों को छुपकर छद्म तरीके से अपना अभियान चलाना पड़ा। मगर गांधी और उनके विचार अमर हो गये। आज सावरकर के अनुयायियों को भी गांधी के आगे शीश नबाना पड़ता है। आज हमारा देश एक धार्मिक देश नहीं है, सांप्रदायिकता यहां का विचार नहीं है। धर्मनिरपेक्षता ही यहां का असल सिद्धांत है। यही गांधी की शहादत का हासिल है। इसलिए इसे मैं अनोखी शहादत कहता हूं। और बार-बार सोचता हूं कि गांधी की इस आखिरी जंग से हम सबको सीखने की जरूरत है।